बुद्ध ठहरे थे जरूर रुके नहीं थे

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan


मिली जनतंत्र के जागीर में
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अपनी ओर से क्या कहूँ, अब बात के आखिर में
दर्द है कि हरर्र कर उठता है, दिल-ए-काफिर में

बेकसी, मुफलिसी ही मिली जनतंत्र के जागीर में
रहा नदारद है तो वही अव्वल हुजूर-ए-हाजिर में

सुना है बुद्ध ठहरे थे जरूर रुके नहीं थे राजगीर में
फिक्र! थोड़ी सलाहियत है बची फन के माहिर में

मेरे वजूद का क्या यह गिरवी है दस्त-ए-जाकिर में
ढूढ़ते सबूत बातों में देखते नहीं नजर-ए-हाजिर में

मैं खोया रहा हुस्न के सितम और पनाह के तासीर में
मेरे जिक्र की वजह है कोई नहीं, जिक्र-ए-नासिर में

अपनी ओर से क्या कहूँ, अब साल के आखिर में
दर्द है कि हरर्र कर उठता है, दिल-ए-काफिर में

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