अख़बारों में सुर्खियां

अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और क्या-क्या करते रहे हैं!!!
गहन है यह आत्मनिरीक्षण की कठिन घड़ी!
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डॉ. नामवर सिंह का यह कहना विचारणीय है कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लेखक क्यों पुरस्कार लौट रहे हैं। अगर उन्हें सत्ता से विरोध है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए, क्योंकि अकादमी तो स्वायत संस्था है और इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है। डॉ. नामवर सिंह हिंदी आलोचना के जीवित शिखर पुरुष हैं। उनके औपचारिक-अनौपचारिक विद्यार्थियों से हिंदी संसार समृद्ध और आत्म-सम्मानित है। वे वृद्ध हैं, भोले तो नहीं हैं कि पुरस्कार लौटाने को लेकर जो हो रहा है वे इसके कारण को समझ न पा रहे हों। तो क्या डॉ. नामवर सिंह जानबूझकर अर्द्ध-सत्य कह रहे हैं? यह सवाल तो है, हालाँकि, उनकी व्यथा जायज है। पुरस्कार लौटानेवाले लेखक, मैं हिंदी लेखक की बात कर रहा, को चाहिए कि पुरस्कार पाने की प्रक्रिया और पद्धति का भी खुलासा करें। डॉ. नामवर सिंह से बेहतर किसे मालूम है कि कैसे पुरस्कार लिये-दिये जाते रहे हैं। इन पुरस्कारों के चक्कर में हिंदी साहित्य का बड़ा अहित हुआ है। पुरस्कार लौटानेवाले हिंदी लेखकों को चाहिए कि कुछ खुलासा भी करें। इसी पुरस्कार ने साहित्य को कला से क्रीड़ा में बदल दिया। रही अकादमी के स्वायत संस्था होने और इसके अध्यक्ष के निर्वाचित होने की बात तो इस पर क्या कहा जाये! देश की जनता और हिंदी का पाठक अब तक 'निर्वाचन की प्रक्रिया की पवित्रता' से अच्छी तरह न सिर्फ अवगत है बल्कि शिकार भी है। और 'स्वायत'! स्वायत की समझ ने तो बहुत गड़बड़झाला किया है। प्रेमचंद की कहानी ‘मुक्ति-मार्ग’ से एक संदर्भ :
बुद्धू ने कहा - ‘‘तुम्हारी ऊख में आग मैंने लगायी थी।’’
झींगुर ने विनोद के भाव से कहा - ‘‘जानता हूँ।’’
थोड़ी देर के बाद झींगुर बोला - ‘‘बछिया मैंने ही बाँधी थी, और हरिहर ने उसे कुछ खिला दिया था।’’
बुद्धू ने भी वैसे ही भाव से कहा - ‘‘जानता हूँ।’’
फिर दोनों सो गए।

अभी भी वक्त है,  झींगुर और बुद्धू की तरह साहित्यकार साहित्यिक लाभ के लिए किये गये अपनी गैर साहित्यिक गतिविधियों का खुलासा करें। इस से बहुत भला होगा और पुरस्कार लौटाने की बात समझ में आये या न आये यह जरूर समझ में आ सकता है कि क्यों प्रगतिशील साहित्यिक सृजनशीलता सत्ता से समर्थित और पुरस्कृत होती रही लेकिन समाज में सम्मानित और स्वीकृत नहीं हो पाई; समाज से वे मूल्य भी तेजी से असम्मानित और अस्वीकृत होते गये जिसके लिए साहित्य संघर्षशील था। आखिर क्यों और कैसे विद्यालय / विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से बाहर पाठकों का इतना बड़ा अभाव हो गया। बहुत कठिन दौर है! आत्मस्वीकार का साहस भी कोई कम बड़ा साहस नहीं होता है। लेकिन उन से क्या उम्मीद करें जिनका आलोचनात्मक विवेक अब यह कहता है कि लेखक अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस तरह पुरस्कार लौटा रहे हैं। कुछ लोग इस से सहमत भी होंगे लेकिन इसका जवाब तो फिर भी उन्हें देना ही होगा कि तब क्या लेखक अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस पुरस्कार के पीछे तबाह होते रहे हैं! अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए लेखक और क्या-क्या करते रहे हैं!!! गहन है यह आत्मनिरीक्षण की कठिन घड़ी!

लौटाने वाले को पाने की प्रक्रिया की भीतरी बात खोलनी चाहिए। मन सच्चा है तो प्रपंच से मुक्त होने के लिए एक कन्फेशन मददगार साबित हो सकता है। इस प्रपंच ने हिंदी साहित्य का बड़ा अहित किया है। इसलिए, इसे सिर्फ हिंदी के संदर्भ में पढ़ा जाये।

सलाम लेकिन जिसे पाने के लिए इतना परेशान था कि हवा ही बिगाड़ दी
पूछूँ कि उसे लौटाकर कितना सुकून मिल रहा विवेक कि क्यों हवा बिगाड़ दी

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