चीख की चादर बदलता रहा

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

वह एक मजेदार दिन था
मेरी आँख धीरे-धीरे खुल रही थी
इंद्रियाँ धीरे-धीरे सक्रिय हो रही थीं
मैं शहर की तरफ बढ़ रहा था

मैंने देखा, सुना पर समझा नहीं
देखा कि कुछ लोग हैं जो
पहले फुसफुसाते हैं, फिर जोर से
बहुत जोर से चीखने-चिल्लाने लग जाते हैं

मैं ने सुना कुछ लोग
बात-बात पर कलम निकाल लेते हैं

मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर क्या था वह सब

समझता भी कैसे ▬▬
सुनने की चीज को देख रहा था
देखने की चीज को सुन रहा था

मेरा कसूर यह कि मुझे ऐसा ही पढ़ाया गया था

मैंने पता लगाया कि
आखिर उस जमात के लोग कर क्या रहे थे
समझ में आया कि वे वक्त को बदल रहे थे

वक्त को बदलना
अच्छा मुहावरा था, मुझे पसंद आ गया
मैं भी जमात में घुसने की जुगत में लग गया

पर यह आसान काम नहीं साबित हुआ मेरे लिए
मैंने बहुत गौर करने पर पाया कि
मैं वक्त को नहीं, वक्त मुझे बदल रहा है

मैं बाहर से चिल्लाता रहा
लेकिन जमात ने इशारा किया ▬▬
हम वक्त को बदलने में कामयाब हो रहे हैं
बस तुम खुद को सम्हालो, बुजदिल!

मुझे बुजदिल शब्द पर ऐतराज था हालाँकि मैं वही हूँ,
बस शब्द बदलने की बात मैंने जमात से की

जमात को इस बात पर ऐतराज था
उनका कहना भी सही था कि
वे वक्त को बदलने के लिए प्रतिबद्ध हैं शब्द बदलने के लिए नहीं

मैं अब क्या करता
जमात के बाहर शब्द बदलता रहा
चीख की चादर बदलता रहा
क्या! आप नहीं समझ रहे!
आप क्या उम्मीद करते हैं!

मैं क्या कर सकता हूँ?
आप नहीं समझ रहे, मैं ही कहाँ समझ रहा!



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