रोपते हैं गीत और काटते हैं रुदन

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan
रोपते हैं गीत और काटते हैं रुदन

बजाये जाते हैं नगाड़े
जब लड़ाये जाते हैं पहलवान

पहलवान
तोल ठोकते हैं
बच्चे पीटते हैं ताली
मजदूर
अपना गीत खुद गाते हैं
मालिक
घुमाते रहते हैं दुनाली

नगाड़े की आवाज
दूर-दूर तक ललकारती है
मजदूरों का गीत
पके धान-सा गुप-चुप
लह-लह मुस्काता है

अगहन के
कटे खेत की तरह
उदास हो जाता है
मजदूरों का चेहरा
रौंद दी जाती है
मुस्कानें
पके धान-सी
और खिलखिला उठते हैं
बड़े-बड़े बखार

कैसी रीति है कि
मजदूर
रोपते हैं गीत
और काटते हैं रुदन
इसलिए वाजिब नहीं है
रोपने और काटने का
समीकरण

जब तक खेत
बन नहीं पाते अनुकूल
हिस्से में आयेंगे

सिर्फ काँटेदार बबूल

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