दही खा गये सो.. खा गये.. जाते समय..


दही खा गये सो.. खा गये.. जाते समय..
18 सितंबर 2013 पर 01:57 अपराह्न

साहित्य की दुनिया में आता-जाता जरूर हूँ, पर मेरा घर वहाँ नहीं है। साहित्य की दुनिया से आने-जाने का रिश्ता है, वहाँ की नागरिकता हासिल नहीं है। हाँ, आते-जाते उस बस्ती के बारे में कुछ अशोभनीय सुनता हूँ, तो कई बार उपेक्षा कर जाता हूँ कि बड़ों के मुआमले में हम जैसे लोगों की दिलचस्पी ना-हक है। कई बार दुख होता है, लेकिन सह लेता हूँ। बड़ों के मुआमले में बोलने का गैर-जरूरी साहस नहीं है। फिर भी मन में उठी बात को हर बार रोक पाना संभव भी तो नहीं होता है! हालाँकि, बात के पीछे की बात और उसके भी पीछे के घात-प्रतिघात के बारे में बिना कुछ जाने कहना उचित नहीं है। दुख होता है, स्वाभाविक है कि दुख हो ▬▬ दुख का कारण अज्ञान है! साहित्य के दुनियादारों को देख कर तो अद्भुत यह लगता है कि दुख का कारण ज्ञान भी है! लेन-देन तो चलता रहता है। लेन-देन के बिना तो जीवन ही नहीं चल पाता है, तो फिर साहित्य की बात क्या। लेना-देना पारस्परिक क्रिया है जो शुद्ध रूप से लेने-देनेवालों के बीच का मामला है। फिर भी कुछ तो बेजा घटा है, जो नहीं घटना चाहिए था। इस तरह के प्रसंग से मन भारी हो ही जाता है। चलिए एक प्रसंग सुनाकर मन हल्का करने की कोशिश करता हूँ...

एक बार एक किसान के घर चोरी हुई। किसान बुक्का फाड़कर रो रहा था। छाती कूट रहा था। लोगों ने समझाने की कोशिश की, तरह-तरह के सुझाव दिया। रोना कम नहीं हो रहा था।

पट्टी के प्रधान आये डाँटकर पूछा---

'अबे इतना जोर से पछाड़ क्यों खा रहा है..!!'

'हुजूर रात मेरे घर में चोरी हो गई...'

'चोरी..! अबे तेरे घर में था ही क्या कि चोरी हो गई!! .. अच्छा बता चोर क्या उठा ले गये?'

'हुजूर था कुछ नहीं... बस दही था... सब खा गये...'

'दही खा गये!! दही खा गये तो.. खा गये.. फिर जमा लेना...!'

अब किसान का धीरज जवाब दे गया। मुँह बिसुरकर उसने सुबकते हुए कहा----

'दही खा गये सो.. खा गये.. जाते समय.. हुजूर मटकुरी में हग गये...!'

अब पट्टी प्रधान क्या कहते! चुपचाप सरक लिये वहाँ से। जब पट्टी प्रधान ही चले गये, बाकी के वहाँ मजमा लगाये रहने का कोई मतलब नहीं था। सभी अपने-अपने घर भग लिये।

यह तो मैंने अपना मन हल्का किया। आपका भी मन थोड़ा-बहुत हल्का हो तो मुझे राहत मिलेगी। न हो तो दुख होगा। लेकिन इसका कोई दूसरा मायने-मतलब नहीं है। मुझे ध्यान है, साहित्य की दुनिया से आने-जाने भर का रिश्ता है अपना, वहां की नागरिकता हासिल नहीं है।






BM Prasad बहुत अच्छा.

और आप स्वयं अत्यंत विनम्र भी हैं

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