कुछ कविताएँ



लोग आज भी उम्मीद से हैं
आकाश का रंग कुछ-कुछ फीका पड़ गया था
पीलापन लिये मटमैला-सा
धरती पर खामोशी छायी हुई थी
इधर बाजार में पक्की खबर के तौर पर
अफवाह फैल गयी थी कि
अब आसमान में पर मारना परिंदों के लिए
बहुत खतरनाक हो गया है
लेकिन बाजार के सहमने का कारण
यह था कि
यह बात तेजड़ियों और मंदड़ियों को ही नहीं
परिंदों तक को मालूम हो गयी थी और वे यकीन से थे

दफ्तरों में बाबू लोग अवश्य
इस अफवाह पर ध्यान नहीं दे रहे थे
और बाजार में इस बात पर संतोष भी था

दलालों को उम्मीद थी
क्योंकि दलाल ही अंत-अंत तक
उम्मीद को बचाये रख सकते हैं
उम्मीद कि आकाश का रंग जल्दी ही नीला हो जायेगा
जल्दी ही धरती की खामेशी भी टूटेगी
और यह सब बाबुओं के गंभीर होने के पहले होगा
लेकिन बड़े दलाल इसे परिंदों के रुख पर निर्भर मानते थे

उम्मीद बड़े जमीनदारों को भी थी
और वे इसे अपने फॉर्म हाउस की
घास के रुख पर निर्भर मानते थे

देश के किसान इस पूरे संदर्भ से बेखबर थे
और आकाश के उदास मिजाज के बारे में
उनका अपना पारंपरिक विश्लेषण था
और उम्मीद के अपने कारण थे
जो जाहिर है दलालों के कारणों से भिन्न थे
उम्मीद कि जल्दी ही आसमान का रंग मेघिल हो जायेगा
और धरती मुस्कुरायेगी
लेकिन यह सब
उनके गांव में स्कूल खुलने पर निर्भर करेगा

उम्मीद से हर कोई था
और हर किसी के पास अपने-अपने कारण थे
लोग आज भी उम्मीद से हैं

सोच-सोचकर वे खुश हैं

उन्होंने पुख्ता इंतजाम किया
बिजली मिस्त्री से बात की
खर्च का हिसाब लगाया
गाँठ टटोली
विदेशी बैंकों की ऋण-योजनाओं का पाठ किया
विश्वबैंक एवं विकास के लिए
प्रतिबद्ध अन्य ऐसी ही संस्थाओं की
वार्षिक रिपोर्ट पढ़ी
चाय की चुस्की ली और इतमीनान हो लिये

उनका बैंक के पास गिरवी रखा
घर रोशनी में नहा उठा
वे खुद भी देर तक नहाते रहे
मन के भीतर देर तक रोशनी की खबर पकाते रहे

दर्पण में खुद को गौर से नीहारते हुए पाया कि
वे मुस्कुरा रहे हैं और एलान किया ऐसे ही दर्पण काम के होते हैं
और अब सूरज बहुत उपयोगी नहीं रहा
टेबुल लैंप की तरह ऑफ-ऑन की सुविधा उसमें नहीं है
हवा के लिए बिजली का पंखा काफी है
एक बेहतर मौसम मशीन से ही पैदा की जा सकती है
विश्वास जमाया कि शीघ्र ही धरती की गति को भी
शेअर बाजार से लिंकअप किया जा सकेगा

सब कुछ नियंत्रण में है
सोच-सोचकर वे खुश हैं

लोग बेखौफ हैं
लोग मेले से लौट रहे थे बेखौफ
उनके चेहरे पर एक हरियर खुशी थी कि
फिलहाल वे सुरक्षित थे
प्रशासन की चुस्ती से बेहद संतुष्ट
और अपनी नियति से भी कि
प्राथमिकी दर्ज कराने जैसी कोई घटना नहीं हुई
वे बेखौफ थे कि
उनकी युवा रंगीन- प्रेमिका से किसी ने
मार्यादा के बाहर जाकर छेड़-छाड़ नहीं की

वे बेखौफ थे कि
उनके बच्चों के गुब्बारे अब तक फूले-फूले थे
रंग-बिरंग के बड़े-बड़े गुब्बारे
रंग ऐसे कि पर्यावरण सचेतनता साबित हो
बड़े इतने कि गुब्बारों के बारे में
धरती होने का भ्रम फैलाया जा सके आसानी से
वे बेखौफ थे कि
एक दिन उनका लाड़ला
धरती को गुब्बारों की तरह उठाकर घूमेगा
स्कूली बस्तों से मुक्त होकर

उन्हें एक ही शिकायत थी फिलहाल कि
गुब्बारों के फूटने या फोड़ दिये जाने के बारे में
कानूनी स्थिति उतनी साफ नहीं है इस मुल्क में

फिर भी जरूरत पड़ने पर
नयी-नयी बनी बहुराष्ट्रीय धुनों पर
वे जोर-जोर से वंदे मातरम गाते हैं
किसी भी राष्ट्रीय मेले में बेखौफ होकर
वे बेखौफ हैं कि देश का कानून उनके साथ है

बहस की माँग

मेरे गाँव में महामारी फैल रही है
मैं इस पर बात करना चाहता हूँ

मैं जानना चाहता हूँ
इस महामारी का नाम
इसमें रगों में
खून की जगह आँसू बहने लगता है
और आँखों में
आँसू की जगह खून उतरने लगता है

मैं चाहता हूँ सभी लोग
इस महामारी पर सोचें
सोचें और बहस करें

हालाँकि मैं जानता हूँ कि
महामारी बहस से दूर नहीं होती है
मगर उजागर तो होती है !

सही औषधि की तलाश के लिए
मैं इस विपर्यय पर दोस्तों से
बहस की माँग करता हूँ

एक नये सूरज की तलाश

इस समय एक नये सूरज की
तलाश जारी है जो पसीने की `बदबू' को
इंसानियत की खुशबू’ में बदल सके

जिसकी किरणें
हर गहन गुहा दुर्गम दुस्तर तक पहुँचे
जिसकी रौशनी
फुटपाथ पर चलते हुए
अचानक किसी पर पागलपन छा जाने की
प्रक्रिया का रहस्य खोल दे

जो दिखा सके सारा परिदृश्य
छीले-छाँटे वर्त्तमान और तय करे आदमी का भविष्य

जिसके ताप से
हर उत्तुंग हिम-शिखर पिघलकर पानी-पानी हो जाये
पानी जो खेत-खेत, कुँआ-कुँआ जाये
खेत जिसमें निरोग फसल शान से लहराये

सच इस समय
उस सूरज की तलाश जारी है
जिसका उजाला जंगल के अँधेरों के हाथ न बिके
जो पसीने की बदबू’ को इंसानियत की खुशबू’ में बदल सके

ओ अनागत शिशु तुम जरा किलको तो

चिता की लपट मद्धम न पड़ जाये
और उजाला किये जाने का भरम बना रहे
इसका खयालकर, तेजी से सु ल गा ये जा रहे हैं जंगल

जंगल कुहरे और चाँदनी के बीच
सुन्न हवा में गोलियाँ उड़ रही है
परिंदों के पंख के साथ बंधे नारों के साथ

ओ अनागत शिशु तुम जरा किलको तो
अपनी मुटिठयों को धँसाते हुए
आसमान के क्रूर हृदय में
तुम्हारे लाल-ला होठ के बीच से निकले
दूधिया उजास से जी उठेगा सूरज
लौट आयेगा धरती के पाँव के पाँव में
खोया हुआ विश्वास
बछड़े की आवाज सुन दौड़ती-हुमकती हुई
लौटती गाय की तरह

ओ अनागत शिशु तुम जरा किलको तो !

आप क्या सोचते हैं ?

चलती गाड़ी की ओर
पत्थर उछाल देता है बच्चा !

बच्चा क्या सोचता है ?

चलती गाड़ी की खिड़कियाँ
बंद कर लेता है मुसाफिर !

मुसाफिर क्या सोचता है ?

पटरियों को
उखाड़ फेकता है जवान !

जवान क्या सोचता है ?

अखबार को एक झटके से
किनारे कर देता है अधेड़ !

अधेड़ क्या सोचता है ?

अधूरी पढ़कर
कविता को पलट देते हैं आप !

आप क्या सोचते हैं ?





4 टिप्‍पणियां:

mahesh mishra ने कहा…

gubbaron ke baare me ye bhram failaya ja sake ki ve dharti jitne bade hain....aur unke baare me kanooni sthiti spasht nahin...very nice

mahesh mishra ने कहा…

सर,
"मैं जानना चाहता हूँ
इस महामारी का नाम
इसमें रगों में
खून की जगह आँसू बहने लगता है
और आँखों में
आँसू की जगह खून उतरने लगता है"

कविता में खून की जगह आंसू बहने लगते हैं तात्पर्य कि क्रोध की जगह दुःख प्रदर्शन. किन्तु 'आंसू की जगह खून उतरने लगता है' ये बात मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा हूँ. कृपया समझाइये.

अनुपमा पाठक ने कहा…

बेहतरीन कवितायेँ...!

So good to reach your blog!
Regards,

प्रफुल्ल कोलख्यान / Prafulla Kolkhyan ने कहा…

शुक्रिया अनुपमा...